प्रतिलिपि के साथ अपने बचपन की कुछ मीठी बातें करते हुए श्री अनवर सुहैल जी / A short interview with Anwar Suhail

नाम :  अनवर सुहैल

जन्मदिवस : ०९ अक्टूबर १९६४ (जांजगीर छ. ग.)

मूलस्थान : मनेन्द्रगढ़ जिला कोरिया छ.ग.

शैक्षिक उपाधि : प्रथम श्रेणी खनन प्रबंधन

1. स्वभाव : भावुक, संवेदनशील, सृजनशील, दृढ निश्चयी

2. खास शौक :

भूमिगत कोयला खदान में एडवेंचरस नौकरी, कविता, कहानी, उपन्यास लेखन-पठन और संकेत (कविता केन्द्रित लघुपत्रिका) का संपादन

3, पसंदीदा साहित्य विधा(कविता/कहानी/व्यंग्य/हाइकू आदि) :

बांगे-दरा (इक़बाल), सारे सुखन हमारे (फैज़ अहमद फैज़) कागज़ ते केनवास, सारा-शगुफ्ता की जीवनी, पांच बरस लम्बी सड़क, नागमणि  (अमृता प्रीतम) मंटो के तमाम अफ़साने, माँ (गोर्की), रजत-रातें (दास्तोएवस्की) चेखव की कहानियां, प्रेमचंद का समस्त लेखन, हरिशंकर परसाई समग्र, एक चिथड़ा सुख, कव्वे और काला पानी (निर्मल वर्मा) मुक्तिबोध, बाबा नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल की कविताएँ, इब्ने-इंशा की शायरी, उदयप्रकाश का समस्त लेखन, इब्ने-सफी बीए के जासूसी उपन्यास, ओल्डमैन एंड सी (हेमिंग्वे) और…और…और…

4. प्रकाशित रचनायें :

कविताएँ  : हस्तलिखित और चित्रित प्रथम काव्य पुस्तिका ‘गुमशुदा चेहरे’ और थोड़ी सी शर्म दे मौला, संतो काहे की बेचैनी (काव्य संग्रह)

उपन्यास   : पहचान, सलीमा

कथा संग्रह : कुंजड-कसाई, ग्यारह सितम्बर के बाद, गहरी जड़ें

सम्पादन  : कविता केन्द्रित पत्रिका ‘संकेत’ का सम्पादन

5. अगर अपनी जिंदगी फिर से जीने का मौका मिले तो क्या बदलना चाहेंगे?

बचपन को पूरी शरारतों के साथ जीना…मैं बहुत संजीदा लड़का था. चाहता था कि मुझे ज़िम्मेदार, समझदार समझें…चुप्पा और घुन्ना सा था…मेरे अध्यापक मुझे ‘बूढा बालक’ कहते और मैं खुश होता कि मैं कितना महान हूँ…तो दुबारा जीवन मिले तो बचपन को फुल-एन्जॉय करूँगा…ताकि बाद में कोई मलाल न रहे…

6. आपके बचपन का सबसे यादगार किस्सा क्या है?

दो बहनों के बाद हम दो भाई हैं…फिर हम समझदार हुए ही थे कि पता चला हमारे घर फिर किसी की आमद है…हम दोनों भाई मगरिब की नमाज़ के बाद दुआ मांगते कि हमें एक प्यारी सी बहन मिले…अल्लाह ने हम बच्चो की दुआ सुन ली…और मेरी छोटी बहन शमा पैदा हुई…जिसे मैं बहुत प्यार करता था…उसे रात में कहानियां सुनाता…और ऐसे ही एक रात एक कहानी तैयार हुई—‘नन्हा शेर’  एक बच्चे की साहस की कथा…बहन ने उस कथा को पूरे मनोयोग से सुना था…तब हम ‘पराग’ नंदन पढ़ा करते थे….मैंने कापी के पन्नों पर उस कहानी को लिखना शुरू किया. और देखते-देखते वो एक अच्छी कहानी बन गई…मैंने कापी के पन्ने फाड़े और उन्हें बच्चों की बड़ी पत्रिका ‘पराग’ को पोस्ट कर दी…फिर मैं प्रतिदिन पोस्ट-ऑफिस जाने लगा…और एक दिन आश्चर्य की सीमा नही रही जब ‘पराग’ से कहानी का स्वीकृति पत्र मिला..’नन्हा शेर’ छपी और बेनेट कोलमेन से एक सौ रूपए का चेक आया…बैंक में खाता नही था..अब्बा ने कहा कि यह तुम्हारा पहली कमाई है..इसे संभालकर रखो और उन्होंने बदले में मुझे सौ रूपए दिए…जिससे मैं कई पत्रिकाओं का वार्षिक सदस्य बन गया. इस छोटी सी घटना ने मुझे कहानीकार बनने का ख्वाब देखने को मजबूर कर दिया…अब तक जो कविताई करता था..मैंने कहानी लेखन शुरू किया.

7. वो कौन सी तीन चीज़ें हैं जिनके बिना आपका जीवन अधूरा है?

पहली चीज़ है किताबें…किताबें कैसी भी हों…ज़रूर पढता हूँ. और जब मैंने ‘मेरा दागिस्तान’ पढ़ा रसूल हमजातोव का तो लगा कि अपने परिवेश की बातें हम से अच्छी तरह कोई दूजा बयान नही कर सकता. जिसका परिणाम बना उपन्यास ‘पहचान’ जिसे राजकमल ने छापा. फिर एक और उपन्यास तैयार हुआ ‘सलीमा’ जो प्रकाशनाधीन है. दूसरी है मेरे ख़्वाब…भूमिगत खदान के श्रमसाध्य कार्य के बाद मैं किस तरह लेखन को साधता हूँ…डाकिये का इंतज़ार करता हूँ..पत्र-पत्रिकाएं एक नया जीवन देते हैं और फिर मेरे ख़्वाब मुझे नित-नूतन आइडिया करते हैं…ये ख़्वाब न हों तो जीवन बेमज़ा हो जाए..तीसरी चीज़ है चाय….अच्छी कड़क चाय…अब मधुमेह ग्रसित हूँ…तो बिना चीनी की चाय पीनी पड़ती है..लेकिन चाय न हो तो अनवर जिंदा न रहे.

8. अगर कोई नवोदित रचनाकार आके आपसे अपने लेखन को सुधारने के लिये सुझाव मांगे तो क्या कहेंगे?

मैं नवलेखकों को कहता हूँ सिर्फ एक बात…बिना पाइथागोरस को जाने गणितग्य नही बना जा सकता इसी तरह लेखक बनने से पूर्व अपने साहित्य के साथ-साथ विश्व साहित्य को भी खूब पढ़ा जाए. अपनी विरासत / थाती से बिना वाबस्ता हुए लिखना नही चाहिए. दूसरी बात हमेशा एक बात ध्यान में रखना चाहिए कि लेखक का टारगेट पाठक होता है, पाठक का रेस्पेक्ट तभी होगा जब लेखक अपने लेखन के साथ न्याय करे…लंतरानियां न हांके. तीसरी अहम् बात कि कोई  आपको क्यों पढ़ेगा…इसके लिए भाषा की तमाम शक्तियों से अपनी शैली को परिमार्जित करते रहें…इस तरह कि पहली पंक्ति से पाठक बंध जाए और बिना पढ़े हटे नहीं.

9. आपके जीवन में किन तीन लोगों ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया है?

सबसे पहले मरहूम अम्मी….अम्मी उर्दू-फारसी की गज़ब जानकार थीं और हमारे लिए चलता फिरता शब्दकोष…. इक़बाल, जौक, दाग, मीर के कलाम की दीवानी..बड़ी मधुर आवाज़ थी उनकी…हमने उर्दू सीखी क्योंकि घर में ‘बीसवी सदी’ पत्रिका और जासूसी दुनिया आती थी…जासूसी दुनिया में इब्ने सफी बीए के उपन्यास शाये होते थे…और बीसवीं सदी में उस समय के उर्दू के बड़े लेखक छपते थे. इन सबसे हमारे अन्दर लिखने-पढने का शऊर पैदा हुआ. फिर नंबर आता है गिरीश पंकज का. गिरीश पंकज हमारे मोहल्ले में रहते थे. उनका व्यक्तित्व मुझे प्रभावित करता था. व्यंग्य लिखते थे. नगर की साहित्यिक संस्था ‘संबोधन’ के संस्थापक सदस्य थे. उनके यहाँ कई पत्रिकाएं आती थीं. बिजनौर यू पी से छपने वाली पाक्षिक पत्रिका ‘ठलुआ’ उन्होंने पढने को दी और देखते-देखते मेरे व्यंग्य लेख उसमे छपने लगे..तब मैंने अपना नाम रख छोड़ा था—अनवर सुहैल ‘अनवर’. इस नाम से कविता/गज़लें लिखा करता था. गिरीश पंकज ने मेरे लेखन को सुधारा और डाकिया मेरे नाम की डाक घर में डालने लगा. मैं अपने आप को मुंशी प्रेमचंद समझने लगा था. यदि गिरीश पंकज भाई साहेब न होते तो लेखकीय प्रतिभा कुंद हो गई रहती.

बड़े लेखक तब टाइप राईटर पर लिखा करते थे…मेरी तमन्ना थी की जब कमाने लगूंगा तो हिंदी की टाइप मशीन खरीदूंगा. १९८७ में नौकरी लगी, शहडोल में एक टाइप मशीन का सौदा हुआ…सेकेण्ड हैण्ड मशीन थी…आठ हज़ार रूपए मांग रहा था…जो मेरे बूते का नही था…फिर कुछ दिन रूककर मैंने कंप्यूटर ख़रीदा और तब से आज तक की-बोर्ड पर हूँ…

जिस तीसरे व्यक्ति ने मुझे कथाकार बनाया उसका नाम था स्वर्गीय सुनील कौशिश…ये कानपुर से कथानक नामक कहानी केन्द्रित लघुपत्रिका निकलते थे. मैंने तब उन्हें कई कहानियाँ भेजीं जिन्हें उन्होंने अस्वीकृत कर दिया…फिर एक दिन एक कहानी तैयार हुई—‘सन ऑफ़ बुधन’ इस कहानी की सुनील कौशिश ने प्रशंसा की और कथानक में छापा.और इस तरह कथाकार बनने की राह आसान हुई..नतीजतन हंस में चार कहानियां छपीं.

10. प्रतिलिपि के विषय में आपके विचार:

प्रतिलिपि लेखकों और साइबर पाठकों के बीच एक सेतु का काम कर रहा है. आज के दौर में साइबर स्पेस के महत्व को नकारा नही जा सकता. प्रतिलिपि की टीम बधाई की पात्र है.

पाठकों के लिये संदेश:

कहीं पढ़ा था…लेखकों के बारे में कि ये लिखने वाले बड़े बाज़ीगर होते हैं जो पाठकों को अपने साथ पाठ में प्रवेश देकर ऐसा बांधते हैं कि पाठक हतप्रभ उनकी ट्रिक का शिकार हो जाता है. ऐसे लेखकों के लिए सहज-सजग पाठक बड़े सम्माननीय होते हैं. मैं खुद एक पाठक हूँ और अच्छे लेखन को बड़ी बेताबी से सुन्घता रहता हूँ. ये लेखन अखबार में हो, पत्रिकाओं में हो या किताबों में…एक अरबी कहावत है—‘किताबें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं’ सो मित्रों पढने के अवसर मिलें तो गवाएं मत और किताबें चोरी भी करनी पड़े तो कोई अपराध नही…किताबे पढ़ी जाएँ और अपने दायरे में मित्रों को किताबें पढने के लिए प्रेरित करते रहें….

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2 thoughts on “प्रतिलिपि के साथ अपने बचपन की कुछ मीठी बातें करते हुए श्री अनवर सुहैल जी / A short interview with Anwar Suhail

  1. बहुत सुन्दर साक्षात्कार है. अनवर तुमने मुझे भी याद किया, यह देख कर खुशी हुयी

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